Saturday 2 December 2017

श्री दत्तात्रेय जयंती (मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा)

महायोगीेश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णु के अवतार हैं।। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ था अतः इस दिन श्री दत्त जयंती का उत्सव मनाना चाहिए।

श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध के सप्तम अध्याय की चतुर्थ श्लोक में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर "दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्त:" अर्थात् मैंने अपने आप को तुम्हें दे दिया है श्री विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु हैं महर्षि अत्रि के यहां पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए।

दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका नाम दत्तात्रेय प्रसिद्ध हुआ। इनकी माता का नाम अनसूया है जो सती शिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है।

+ पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है-

एक बार की बात है श्री लक्ष्मी जी, श्री सतीजी और श्री सरस्वती देवी को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान् को अपने भक्तों का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची- भक्तवत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद जी घूमते घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी से जाकर कहा- अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आप का सतीत्व नगण्य है।

तीनो देवियों ने अपने स्वामियों विष्णु महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा। देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के गेट के सामने उनकी एक न चली। अंततः साधु वेश बनाकर वे तीनो देव अत्रि मुनि के आश्रम में पहुंचे महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणाम करके फल, मूल आदि अर्पित किए, किंतु वे बोले- हम लोग तब तक आदित्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप निर्वस्त्र हो हमारे समक्ष नहीं आएंगी।

यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक् रह गईं किंतु आतिथ्यधर्म की महिमा का लोप में हो जाय, इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया, अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान् की लीला समझ कर वे बोलीं यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ: छ: माह के शिशु हो जायं। इतना कहना ही था कि तीनों देव 6 माह के शिशु हो रुदन करने लगे, तब माता ने उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया फिर पालने में झूलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया।

इधर देवलोक में जब तीनो देव वापस न आए, तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलत: नारदजी आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनुसूया के पास आयीं और उन्होंने उसे क्षमा मांगी। देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्व रूप में कर दिया। इस प्रकार पसन्न हो, तीनों देवों ने अनुसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं- आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। 'तथास्तु' कहकर तीनों देव और देवियां अपने अपने लोकों को चले गए।

कालांतर में यही तीनों देव अनुसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय जी का जन्म हुआ। इस प्रकार अत्रि तथा अनसूया के पुत्र रूप में श्री दत्तात्रेय जी श्री विष्णु भगवान् के अवतार हैं और इन्हीें के आविर्भाव की तिथि श्री दत्तात्रेय जयंती कहलाती है।

शास्त्रों में श्री दत्तात्रेय जी को अतिशय कृपालु बताया गया है, यहां तक कहा गया है कि श्री दत्तात्रेय जी भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं।

श्रीमद् भागवत आदि में आया है कि इन्होंने 24 गुरुओं से शिक्षा पाई थी। भगवान दत्त जी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है। गिरनार क्षेत्र श्री दत्तात्रेय जी का सिद्ध पीठ है। इनकी गुरु चरण पादुकाएं वाराणसी तथा आबू पर्वत आदि कई स्थानों पर हैं। दक्षिण भारत में इनके अनके मंदिर हैं। वहां दत्त जयंती के दिन इनकी विशेष आराधना पूजा के साथ महोत्सव संपन्न होता है। इस दिन भगवान् दत्तात्रेय जी के उद्देश्य से व्रत करने एवं उनके मंदिर में जाकर दर्शन पूजन करने का विशेष महत्व है।

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