॥ॐतत्सवितुर्वरेण्यं॥
॥ॐश्रीगुरवे नमः॥
"वास्तु" का अर्थ है- वास करना। जिस भूमि पर जीव निवास करते हैं - उसे ही वास्तु कहा जाता है। वास्तु के शुभाशुभ फल प्राप्ति के लिए -"मत्स्य पुराण" में आता है, कि अंधकासुर के वध के समय भगवान् शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिंदु गिरे उनसे एक भयंकर आकृति का पुरुष प्रकट हुआ। जिसने अन्धकगणों का रक्त पान किया, फिर भी अतृप्त ही रहा। अतृप्त होने के कारण-त्रिलोकी को भक्षण करने के लिए चल दिया। जिसे महादेवादि देवों ने अवरुद्ध कर, पृथ्वी पर सुलाकर, वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया, इसलिए वह "वास्तुपुरुष या वास्तुदेवता" कहलाने लगे। देवताओं ने वास्तु को गृहनिर्माण आदि के, वैश्वदेव बलि के तथा पूजन, यज्ञादी के समय पूजित होने का वर देकर कहा कि वापी, कूप, तड़ाग, घरा, मंदिर, बाग-बगीचा, जीर्णोंधार-निर्माणदि के समय जो तुम्हारी पूजा-प्रतिष्ठा-अर्चना करेंगें, उन्हें सभी प्रकार की सूख-समृद्धि मिलेगी।
भाव- आजकल वास्तु दोष का निदान बहुत से लोग अपने तरीके से करने लगे हैं, जो उचित नहीं है। वास्तु का सही निदान पूजन ही है न कि चमक - धमक। यदि वास्तु अर्थात भूमि कि वो जगह जहाँ हम निवास करते हैं -को ठीक रखना है तो आधुनिक निदान नहीं प्राचीन निदान करें, जो सहज होने के साथ-साथ लाभदायक भी हैं।
॥हरिः ॐ तत्सत्॥
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