साधारण अर्थों में शास्त्र, ज्ञान के समुच्चय को कहा जा सकता है, परन्तु गहन अर्थों में विहित व निषिद्ध कर्म की व्यवस्था के साथ-साथ सृष्टि की आदि से अन्त तक की प्रक्रिया भी शास्त्र ही है और तो और ज्ञान विभूति की पराकाष्ठा भी शास्त्र ही है। शास्त्र न केवल कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का बोध देते हैं बल्कि बुद्धि चातुर्य को विराम भी देते हैं।
महापुरूषों ने शास्त्र तीन प्रकार के बताए हैं:-
१. प्रथम श्रेणी है "विनिर्गत", इस श्रेणी में वह शास्त्र हैं जिनका किसी ने निर्माण नहीं किया अर्थात्. "वेद"। क्योंकि वेद ही केवल ऐसे हैं, जिन्हें किसी ऋषि अथवा देवता ने प्रकट नहीं किया, स्वयं प्रजापिता ने ब्रह्मा ने भी नहीं।
२. दूसरी श्रेणी में हैं "स्मृत", इस श्रेणी में वे शास्त्र हैं जो भगवत्प्राप्त ऋषियों, मुनियों, देवताओं, गन्धर्वों आदि की स्मृति में भगवत्कृपा स्वरूप प्रकट हुए। इनमें पुराण, उपपुराण, स्मृतियाँ, ब्राह्मण व इतिहास ग्रन्थ हैं।
उदाहरण के लिए चौबीस अक्षर के गायत्री मन्त्र से २४००० श्लोकी रामायण बनी, सप्तश्लोकी दुर्गा से दुर्गासप्तशती बनी, चतुर्श्लोकी भागवत से द्वादशस्कन्धी भागवत बनी, आदि।
३. तीसरी श्रेणी है "कृत", इस श्रेणी में सिद्ध महापुरूषों व अवतारी चेतनाओं द्वारा लिखी गई टिकाएं व भाष्य प्रमुख हैं। कुछ विद्वानों ने सिद्ध चरित्रों को भी इसी श्रेणी में माना है, परन्तु कसौटी एक ही है, वह है भगवत्उन्मुखता। यहाँ तर्कों और शब्दों के विन्यास का कोई मूल्य नहीं है (जिसका आजकल ज्यादा प्रचलन है), इसीलिए इनके बारे में ज्यादा सावधान होने की आवश्यकता है।
अगले लेख में कुछ और...
*** हरि: ॐ तत्सत् ***
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