॥ॐतत्सवितुर्वरेण्यं॥
॥ॐश्रीगुरवेनमः॥
ये एक ऐसा प्रश्न है जो आजकल हर किसी के मन-मस्तिष्क में बारम्बार उठता ही रहता है। सभ्यताओं के इस संक्रमण काल में चिंतन विकृत होता जा रहा है, स्वयं सनातन धर्मावलम्बी ही इससे हटकर इस पर प्रश्नचिन्ह लगाने में ही बुद्धिमत्ता मान रहे हैं। लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह आचरण उचित है? चलिए स्वयं भगवान से ही पूछा जाए...
भगवत्संविधान श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं,
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि॥
(गीता १६, २३-२४)
"जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को ही प्राप्त होता है। अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है - (ऐसा जानकर तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात्. तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।" तात्पर्य यह है कि हम क्या करें और क्या न करें? - इसकी व्यवस्था में शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिये।
अन्यत्र मिलता है कि शास्त्र विहित आचरण करने वाले "नर" होते हैं और जो मन के अनुसार (मनमाना) आचरण करते हैं, वे "वानर" होते हैं-
मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानराः।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः॥
[सम्भवतः शास्त्र को ही प्रधान बताने हेतु ही ऐसा कहा गया है]
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
(गीता १६, ०७)
इस प्रकार मनुष्यमात्र को यथासामर्थ्य शास्त्र को ही प्रधान मानकर, तदनुरूप ही आचरण का प्रयास करना चाहिये।
॥हरिः ॐ तत्सत्॥
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