॥ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं॥
॥ॐ श्रीगुरवे नमः॥
रत्नों का प्रयोग ज्योतिष में किए जाने वाले उपायों में से एक बहुत शक्तिशाली उपाय है। प्राचीन काल से ही राजा महाराजा तथा धनवान लोग रत्नों का प्रयोग करते आ रहे हैं तथा आज के युग में भी बहुत से धनवान तथा प्रसिद्ध लोगों की
उंगलियों में तरह तरह के रत्न देखने को मिलते हैं। क्या ये किसी दैवीय शक्ति से प्रेरित होकर कार्य करते हैं अथवा इनकी कार्यप्रणाली के पीछे वैज्ञानिक तथ्य हैं।
रत्नों की कार्यप्रणाली को जानने के लिए सबसे पहले हमें एक कुंडली की कार्यप्रणाली के बारे में जान लेना अति आवश्यक है। ज्योतिष में बताई जाने वाली 12 राशियों में से कोई एक राशि हर समय आकाश मंडल में उदित रहती है। एक राशि के आकाश में उदित रहने का सामान्य समय 2 घंटे होता है तथा इसके पश्चात उस राशि के बाद आने वाली राशि आकाश में उदय हो जाती है और फिर अगले दो घंटे तक वह राशि आकाश में उदित रहती है। इस प्रकार से 12 की 12 राशियां एक दिन अर्थात 24 घंटे में अपने अपने क्रम से उदय होती रहती हैं तथा यह क्रम निरंतर चलता रहता है। किसी भी व्यक्ति विशेष के जन्म के समय जो राशि आकाश में उदित होती है, वह उस व्यक्ति का लग्न कहलाती है तथा इस राशि को उस व्यक्ति की कुंडली में पहले भाव में स्थान दिया जाता है। इसके बाद की राशियों को कुंडली में क्रमश: दूसरा, तीसरा……… बारहवां स्थान दिया जाता है। इसके पश्चात नवग्रहों में से प्रत्येक ग्रह की किसी राशि विशेष में उपस्थिति के अनुसार उसे कुंडली के उस भाव में स्थान दिया जाता है जहां पर वह राशि स्थित है।
उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के जन्म के समय उस स्थान विशेष में मेष राशि उदय हो रही है तो मेष राशि उस व्यक्ति का लग्न कहलाएगी तथा इसे उस व्यक्ति की जन्म कुंडली के पहले भाव में लिखा जाएगा। इसके बाद वृष राशि को दूसरे भाव में, मिथुन राशि को तीसरे भाव में…………… मीन राशि को बारहवें भाव में लिखा जाएगा। इस प्रकार कुंडली के बारह भावों का निर्माण होता है। इसके पश्चात नवग्रहों का इन भावों में स्थान सुनिश्चित किया जाता है। उस समय विशेष में सूर्य यदि तुला राशि में भ्रमण कर रहे हैं तो उन्हें इस कुंडली के सातवें भाव में स्थान दिया जाएगा क्योंकि तुला राशि इस कुंडली के सातवें भाव में स्थित है। इसी प्रकार समस्त नवग्रहों को उनकी तत्कालीन राशि स्थिति के अनुसार कुंडली के विभिन्न भावों में स्थान दिया जाएगा तथा कुंडली का निर्माण पूरा हो जाएगा।
कुंडली में दिखाए जाने वाले बारह भाव, वास्तव में कुंडली धारक के शरीर में विद्यमान बारह उर्जा केंद्र होते हैं जो भिन्न-भिन्न ग्रहों की उर्जा का पंजीकरण, भंडारण तथा प्रसारण करते हैं। किसी व्यक्ति के जन्म के समय इनमें से कुछ उर्जा केंद्र उस समय की ग्रहों तथा नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार सकारात्मक अथवा शुभ फलदायी उर्जा का पंजीकरण करते हैं, कुछ भाव नकारात्मक अथवा अशुभ फलदायी उर्जा का पंजीकरण करते हैं, कुछ भाव सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों प्रकार की उर्जा का पंजीकरण करते हैं तथा कुछ भाव किसी भी प्रकार की उर्जा का पंजीकरण नहीं करते। अंतिम प्रकार के भावों को कुंडली में खाली दिखाया जाता है तथा इनमें कोइ भी ग्रह स्थित नहीं होता। इस प्रकार प्रत्येक ग्रह अपनी किसी राशि विशेष में स्थिति, किसी भाव विशेष में स्थिति तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर विभिन्न उर्जा केंद्रों अथवा भावों में अपने बल तथा स्वभाव का पंजीकरण करवाते हैं। किसी व्यक्ति के जन्म के समय प्रत्येक ग्रह का उसके शरीर के इन उर्जा केंद्रों में अपने बल तथा स्वभाव का यह पंजीकरण ही उस व्यक्ति के लिए जीवन भर इन ग्रहों के बल तथा स्वभाव को निर्धारित करता है।
लगभग प्रत्येक कुंडली में ही एक या एक से अधिक ग्रह सकारात्मक स्वभाव के होने के बावजूद भी कुंडली के किसी भाव विशेष मे अपनी उपस्थिति के कारण, कुंडली में किसी राशि विशेष में अपनी उपस्थिति के कारण अथवा एक या एक से अधिक नकारात्मक ग्रहों के बुरे प्रभाव के कारण बलहीन हो जाते हैं तथा कुंडली धारक को पूर्ण रूप से अपनी सकारात्मकता का लाभ देने में सक्षम नही रह जाते। यही वह परिस्थिति है जहां पर ऐसे ग्रहों के रत्नों का प्रयोग इन ग्रहों को अतिरिक्त बल प्रदान करने का उत्तम उपाय है।
नवग्रहों के रत्नों में से प्रत्येक रत्न अपने से संबंधित ग्रह की उर्जा को सोखने और फिर उसे धारक के शरीर के किसी विशेष उर्जा केंद्र में स्थानांतरित करने का कार्य वैज्ञानिक रूप से करता है। इस प्रकार जिस भी ग्रह विशेष का रत्न कोई व्यक्ति धारण करेगा, उसी ग्रह विशेष की अतिरिक्त उर्जा उस रत्न के माध्यम से उस व्यक्ति के शरीर में स्थानांतरित होनी शुरू हो जाएगी तथा वह ग्रह विशेष उस व्यक्ति को प्रदान करने वाले अच्छे या बुरे फलों में वृद्धि करते हैं।
॥हरिः ॐ तत्सत्॥
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