॥ ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं ॥
॥ ॐ श्री गुरवे नमः ॥
शून्य को वास्तु में ब्रह्म स्थान कहा जाता है जहा से दस दिशाए गुजरती है। कंप्यूटर हो या गणितीय संसार इस एक शून्य (दिशाओ) के बिना सब मिथ्या है। एक के साथ एक मिलकर शून्य दस दिशाओ का निर्माण करता है जिनके इर्द -गिर्द सम्पूर्ण स्रष्टि घूम रही है। गणित में यह सीधा दस गुना हो जाता है अर्थात् दस दिशाए जिनके आगे कुछ भी नहीं है। हवा के चलने को भारत में उसी दिशा का नाम दिया जाता है। जैसे पूर्व से चलने वाली हवा को पुरवाई। इसी प्रकार अन्य दिशाओ में चलने वाली हवाओ का नाम होता है। जब कोई चलता है तो किसी न किसी दिशा में चलता है। गलत दिशा में चलने वालो को दिशाहीन-पथ भ्रष्ट की संज्ञा दी जाती है। व्यक्ति, समुदाय, समाज, राष्ट्र और विश्व की दिशा सही है, तो ही विकास संभव है। दिशा ही तो है जिसके सहारे जीवन में सुख - दुःख आया जाया करते है। प्रत्येक पल हम इन दिशाओ के सहारे चलते है। चाहे वह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हो या फिर भवन निर्माण में। वास्तु में इन दिशाओ का बड़ा महत्त्व है। जैसे किसी व्यक्ति को जीवन पथ पर चलने वाली दिशाहीनता उसे कही का नहीं छोड़ती उसी प्रकार वास्तु शास्त्र में या भवन निर्माण में की गयी दिशाओ की उपेक्षा उसे आजीवन भटकाती रहती है, उसे कभी भी सुख चेन नहीं मिल पाता है। जीवन में हमें हर पल सही दिशा की जरुरत रहती है। वास्तु के हिसाब से भवन न बनाने के कारण प्राकृतिक उर्जा का प्रवेश अवरुद्ध हो जाता है और जीवन भ्रम, दुःख, हानी, तनाव के भंवर में फस जाता है। वास्तु एक ऐसा विषय है जो रास्तो को सुगम बनता है। इस कला के प्रयोग से जहा हम प्रकृति से तालमेल बैठाते हुए हानी से बच सकते है वही भवन अति सुन्दर और मजबूत बना सकते है। वास्तु शास्त्र में दिशाओ को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञानं का आधार है। यह दिशाए प्राकृतिक उर्जा और ब्रह्मांड में व्याप्त रहस्यमयी उर्जा को संचालित करती है। जो रजा को रंक और कानर को रजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग - अलग तत्व संचालित होते है, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओ द्वारा होता है, जो इस प्रकार है -
~ उत्तर दिशा के देवता कुबेर है जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है। जिससे आर्थिक मामले, वैवाहिक व यौन सम्बन्ध तथा स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
~ उत्तर पूर्व (इशान कोण ) के देवता सूर्य है जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राणशक्ति का मालिक कहा जाता है । इससे जागरूकता, बुद्धि के मामले प्रभावित होते है।
~ पूर्व दिशा के देवता इन्द्र है जिन्हें देवराज कहा जाता है। आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से सम्पूर्ण विश्व को ऊर्जा और रोशनी दे रहे है। लेकिन वास्तुनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते है, जिससे सुख - संतोष तथा आत्मविश्वास प्रभावित होता है।
~ दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव है, जो अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करते है। जिससे पाचन शक्ति, धन तथा स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते है।
~ दक्षिण दिशा के देवता यमराज है, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते है। जिन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशिया, शांति प्राप्त होती है।
~ दक्षिण-पश्चिम(नैऋत्य) दिशा में देवता निरति है जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है। जिससे आत्मशुद्धता और रिश्तो में सहयोग तथा मजबूती प्रभावित होती है।
~ उत्तर-पश्चिम (वायव्य) दिशा के देवता पवन देव है। जो हवा के स्वामी है। जिससे सम्पूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओ एवं बच्चो को प्रभावित करती है।
वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया जाता है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाता है। इन दिशाओ के अनुकूल रहने से जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो जाता है।
॥हरिः ॐ तत्सत्॥
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