मनुष्य ज्यों-ज्यों विकसित होता गया, उसने अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएं जुटाईं. विकसित होने का मतलब ही यही है कि आज हमारे पास तमाम सुविधाएं हैं. हम अपने मनोभावों और मूल वृत्तियों से लड़ते हुए सुविधा के साधनों की खोज में लगे. जैसे हमें डर लगा तो हमने सुरक्षा के अनेक साधन बना लिए. पर क्या आज हम पूरी तरह सुरक्षित हैं? शायद नहीं.
दरअसल साधनों के आने के साथ ही हमारी वृत्तियों का भी रूप बदल गया. पहले हमारा डर एक जैसा था, आज हमारा डर भी कई तरह का है. आज नई-नई चिंताएं सामने आ गई हैं. पुरा काल में मनुष्य प्रकृति से डरता था, पर आज न जाने हम कितनी चीजों से डरते हैं. पहले भय मूर्त किस्म का हुआ करता था, आज अमूर्त भय भी हमारे साथ है. हम भय को पूरी तरह जीत नहीं पाए. हमारे कुछ पूर्वजों ने बहुत पहले ही समझ लिया था कि साधनों से हमारी वृत्तियां हमारे बस में नहीं आएंगी. इसलिए उन्होंने मन को जीतने की बात कही थी. चिंतन के परिष्कार पर इतना बल यूं ही नहीं दिया गया, लेकिन पश्चिम की आँधी में हम ऐसे बहके कि अपने पूर्वजों के अनुभवों को भी दरकिनार कर चले. अब एक ऐसा दौर आया है जब पश्चिम भी सनातन संस्कृति की शरण में है. खैर, देखते हैं कब हमारी नकलची पीढी होश में आती है?
ஜ۩۞۩ஜ हरि: ॐ तत्सत् ஜ۩۞۩ஜ
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