यह
एक विचारणीय प्रश्न है कि ऋषियों को ज्योतिष के सिद्धान्तों-तथ्यों को एक व्यवस्थित
रुप देने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई होगी, जबकि बिना ज्योतिष का मार्गदर्शन लिर हुए
भी जीवन क्रम पूरा किया जा सकता है तथा रही पारलौकिक उन्नति की बात, तो एक न एक दिन
हम सभी को अपने शाश्वत अंशी का योग प्राप्त होगा ही होगा, सम्भवतः इसी जन्म में ना
हो, सम्भवतः अगले जन्म में भी ना हो, लेकिन जब सृष्टि में प्रलय होगी, जब भगवती इस
सृष्टि चक्र को विश्राम देंगी तब तो अवश्य ही हमें परमशान्ति की प्राप्ति होगी, तब
ऐसी अवस्था में क्यों तो हम चिंतित हों और क्यों लोक-परलोक के विसय में सोचें ?
इसके दो कारण
हैं-
१. जब तक प्रलयकाल
न हो और हमें परमशान्ति प्राप्त न हो, तब तक क्या हम यूं ही कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों
की भांति अज्ञान में जीते-मरते रहें और संसार सागर में दुःख ही दुःख झेलते रहें, क्यों
न हम संसार में भी सुझ से रहें और आत्मिक प्रगति के प्रयास भी करते रहें ।
२. जब तक हम
ज्योतिष शास्त्र की सहायता से अपने जीवन में धर्म का सम्पुट धारण कर सत्कर्म में प्रवृत्त
नहीं होंगे, तब तक हम अपना आने वाला कल तो बिगाड़ेंगे ही चाहे वह इस जन्म का हो चाहे
अगले जन्मों का, लेकिन साथ ही साथ हम अपने तीन पूर्वजों (पिता, पितामह, प्रपितामह)
और तीन वंशजों (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र) का वर्तमान और भविष्य भी बिगाड़ते रहते हैं,
चाहे पूर्वज दूसरे लोक में हों या वंशज का जन्म भी नहीं हुआ हो, क्योंकि हमारी शाश्वत
परम्परा में सात पीढ़ियों का सिद्धान्त अकाट्य है- एक स्वयं, तीन पूर्वज, तीन वंशज
।प्रत्येक व्यक्ति के कर्मफल से सातों पीढि़यों का सम्बन्ध रहता है । इसीलिए हमारे
ऋषियों ने ज्योतिष शास्त्र की स्थापना की, वरना तो और भी अनेक तरीके विश्वभर में उपलब्ध
हैं जिनसे भूत-भविष्य की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, लेकिन अन्य सब साधनों से
कर्मफल सिद्धान्त का संबंध नहीं है, जबकि वैदिक ज्योतिष का तो आधार ही कर्मफल सिद्धान्त
है । इसलिए वैदिक ज्योतिष से जुड़ें और अपना लौकिक व पारलौकिक जीवन श्रेष्ठ बनाने का
प्रयास करें ।
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